शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

क्या पता था एक दिन तुम भी ......

!! कीकर !!    :     कविता वाचक्नवी
वसन्त और वैलेंटाईन दिवस की वेला में विशेष .....
© अपनी पुस्तक 'मैं चल तो दूँ' (2005) से उद्धृत





बीनती हूँ
           कंकरी
औ’ बीनती हूँ
           झाड़ियाँ बस
नाम ले तूफान का
           तुम यह समझते।


थी कँटीली शाख
मेरे हाथ में जब,
एक तीखी
नोंक
उंगली में
गड़ी थी,
चुहचुहाती
बूँद कोई
फिसलती थी
पोर पर
तब
होंठ धर
तुम पी गए थे।



कोई आश्वासन
            नहीं था
प्रेम भी
            वह 
            क्या रहा होगा
            नहीं मैं जानती हूँ
था भला
मन को लगा
बस!
और कुछ भी
क्या कहूँ मैं।



फिर
न जाने कब
चुभन औ’ घाव खाई
सुगबुगाते
 दर्द की
वे दो हथेली
खोल मैंने
सामने कीं
         "चूम लो
          अच्छा लगेगा"
तुम चूम बैठे


घाव थे
सब अनदिखे वे
खोल कर
जो
सामने
मैंने किए थे
          और 
तेरे
चुम्बनों से
तृप्त
सकुचातीं हथेली
भींच ली थीं।


क्या पता था
एक दिन
तुम भी कहोगे
        अनदिखे सब घाव
        झूठी गाथ हैं
        औ’
        कंटकों को बीनने की
        वृत्ति लेकर
        दोषती
        तूफान को हूँ।



आज
आ-रोपित किया है
पेड़ कीकर का
मेरे
मन-मरुस्थल में
       जब तुम्हीं ने,
क्या भला -
अब चूम
चुभती लाल बूँदें
हर सकोगे
पोर की
पीड़ा हमारी?


6 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेममय माधुर्यपूर्ण सुन्दर नवगीत .आनंद आया पढ़कर

    जवाब देंहटाएं
  2. प्रेम की स्मृति की अमांसल लयबद्ध व्यंजना के साथ मन के कीकर में अनुराग की कल्पना
    इस रचना को प्रभावशाली बना गई है । बधाई लें ।

    जवाब देंहटाएं
  3. फिर पढ़ा/ फिर फिर पढ़ा/ पढता रहा/ पढता रहा.

    फिर लिखें/ फिर फिर लिखें/ लिखती रहें/ लिखती रहें.

    जवाब देंहटाएं

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