गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

बढ़ती आयु की स्त्री और हिन्दी-फिल्मोद्योग : 'इंग्लिश विंग्लिश'

बढ़ती आयु की स्त्री और हिन्दी-फिल्मोद्योग : 'इंग्लिश विंग्लिश'  :  कविता वाचक्नवी 
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'इंग्लिश विंग्लिश' देख कर लोगों ने बड़ी-बड़ी चर्चाएँ की हैं और फिल्म को अच्छी बताते हुए भी इसके भाषायी `एंगल' के चलते इसके अंत को लेकर आपत्तियाँ की हैं कि अंग्रेजी सीख लेने पर परिवार द्वारा सम्मान पाने का प्रसंग अंग्रेजी की जय दिखाने की 'गुलाम' मानसिकता से प्रेरित है। 


इन सभी तर्कों को देखने पढ़ने के बाद गत दिनों मैंने भी यह फिल्म देखी। खेद है कि फिल्म को भाषायी 'एंगल' देने वाले तर्कों से मेरी सहमति कदापि नहीं बनी। फिल्म में भाषा का मुद्दा मुख्य है ही नहीं। ऊपर ऊपर से देखने पर यद्यपि दीखता यही है। पर मूल मुद्दा स्त्री और उसकी अस्मिता का है। फिल्म में दृश्यों के बीच पल भर को बिना संवादों के कई कई बार जो संप्रेषित करना चाहा गया है, उसे कदापि कहीं शब्द नहीं दिए गए। संवादो व घटनाओं के बीच उस अनकहे को तलाशना व अनुभव करना होता है। यह उसकी सबसे बड़ी खूबी है। ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जो दीखती कुछ और या सामान्य हैं परंतु उनका अर्थ दृश्य से पूरी तरह अलग कुछ और है, जिसे महसूसना पड़ता है। 


यह पूरी फिल्म स्वयं को घर-भर के लिए खपा कर उसी में सुख पाने वाली एक ऐसी स्त्री की प्रतीकात्मक कहानी है, जो सदा अपने से अधिक महत्व दूसरों को देती आई है, अपना अस्तित्व तक मेट कर। परंतु उसका अपने अस्तित्व को मेट देना ही/भी उसके उपहास, हास्यास्पद, निरर्थक, अवमानना व वस्तु की तरह प्रयोग करने का कारण बन जाता है और जहाँ परिवार में कोई उसके अन्तर्मन पर पड़ने वाले आघातों की वेदना को अनुभव करना तो दूर, उन आघातों का स्वर तक नहीं सुन पाता। पति प्रेम, हँसी और प्रशंसा के बहाने भी किस किस प्रकार आघात देते व चोट पहुँचाते हैं और पिता की देखादेखी अपने बच्चे भी। 


इस प्रकार के वातावरण में अपमान व निरन्तर अपनों द्वारा तोड़े जाते मनोबल के बीच उनके लिए अपने को न्यौछावर कर देने वाली वह घरघुस्सू कमजोर गृहणी कैसे एक छोटे से नाममात्र के अवसर के सहारे एक चुनौती (चैलेंज) लेती है और सफल होती है, यह मूलतः कथानक का मुख्यबिंदु है। जिन चीजों के लिए परिवार और समाज स्त्री को प्रताड़ितत करते अथवा नीची दृष्टि से देखते हैं, उनसे उबरने व वे लक्ष्य पाने का अधिकार व अवसर भी समाज व परिवार उन्हें नहीं देता। यदि स्त्री को समान अवसर उपलब्ध करवाए जाएँ तो वह  अपनी क्षमताओं व दूसरों की आशाओं से भी बढ़कर समर्थ हो सकती है। आवश्यकता है उसे इतना समय, सहयोग, मुक्ति व अवसर लेने दिए जाएँ। 


इस प्रतीकात्मक कथा में भाषा का मुद्दा मात्र प्रतीक या कथा के उपकरण के रूप में आया है। इस प्रतीक में उलझ कर रह जाने से कथ्य के साथ बड़ा अन्याय हो जाएगा। 


यह सुखद है कि युवा व्यक्तित्व को केंद्र में रख कर उसके इर्दगिर्द बुनी गई कहानियों से इतर विवाहित, बाल-बच्चेदार व बड़ी आयु की नायिका के जीवन के इर्दगिर्द बुने गए कथानक पर फिल्म बनाने का साहस भी हिन्दी फिल्म उद्योग में किया जाने लगा है। 


फिल्म में बीसियों प्रसंग ऐसे हैं, जहाँ घटना व संवादों के मध्य स्थित वे क्षण जिन्हें कुछ नहीं कहकर व्यक्त करने की चेष्टा की गई है, उन अव्यक्त को अनुभव कर अनेक बार आँसू आ जाते हैं।

पूरी फिल्म की कुंजी एक वाक्य में नायिका के एक संवाद द्वारा दर्शकों को थमायी गई है। ... और उस वाक्य में नायिका कहती है, मुझे अब "प्रेम नहीं, इज्जत चाहिए"। सारा स्त्रीविमर्श मानो एक इस वाक्य में सिमट आया है। हमारे समाजों में कुछेक स्त्रियों के कुछ रूपों को यद्यपि लाड़ दुलार, प्रेम, स्नेह आदि भले मिलता है किन्तु स्त्री व उसकी अस्मिता के प्रति सम्मान की भावना नहीं। थोड़ा पीछे जाएँ तो उस काल के पारंपरिक परिवारों में कम से कम स्त्री के मातृरूप का आदर शेष था और वह उस रूप में किंचित आदर सम्मान की अधिकारिणी हो सकती थी; किन्तु आधुनिकता की बयार के साथ आए सामाजिक परिवर्तनों के चलते बढ़ती आयु के सदस्यों की कष्टप्रद व अवमाननापूर्ण पारिवारिक स्थिति के इस युग में स्त्री का मातृरूप भी क्रमश: अब व्यवहार में आदरणीय नहीं रहा। यह स्त्री के प्रति समय की सर्वाधिक क्रूर अवमानना है।  

इन दिनों भारतीय समाज में हाशिये के बाहर के पात्रों को केंद्र में लाते हुए फिल्म बनाने का ऐसा चलन मुझे सुखद संकेत देता है। 

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27 टिप्‍पणियां:

  1. फिल्म में बीसियों ऐसे प्रसंग हैं...

    आप ने यदि ऐसे एक प्रसंग की भी चर्चा कर दी होती तो इस आलेख की गंभीरता बहुत बढ़ जाती।

    वैसे मैने भी यह फिल्म देखी है। आपकी बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता।

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  2. समाज द्वारा निर्धारित कृत्रिम मानकों पर प्रहार के रूप में भी देखा जा सकता है इसको।

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  3. Dr Kavita jee, Your comment and criticism on this film is very nice.I do agree with u that our so called male dominated society always demand sacrifice from woman.it is unjustified and against the dignity of woman.thanks

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  4. इंग्लिश विंगलिंश फ़िल्म पर ंआप की टिप्पणी लीक से हट कर है ।अधिकांश लोगों ने इसे भाषा के प़श्न से
    जोड़ कर उस प़श्न से ध्यान हटा दिया है जो आप ने उठाया है । वस्तुत: मुख्य प़श्न वही है जिस की तरफ़
    आप वे संकेत किया है ।नारी की स्वतन्त्रता ही मुख्य प़श्न है । आप को इस टिप्पंणी के लिए बधाई ।

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  5. KAVITA JI MAIN AAPSE PURI TARAH TO NAHI MAGAR 90% SAHMAT HUN.. IS VISHAY PAR DETAIL ME FIR KABHI LIKHUNGA..

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  6. भारत से विदेश में अपने पति के पास जाकर जब एक सीधी-साधी औरत रहती है तो वो कुछ समय तक वहाँ की परिस्थितियों व लोगों के बीच कितनी नर्वस रहती है ये फिल्म उसका अच्छा उदाहरण है. अभी पूरी फिल्म नहीं देख पाई हूँ. सिर्फ कुछ सीन ही इधर-उधर से देखे हैं...
    कविता, इस सचेत करने वाले लेख पर आपको बधाई ! ऐसी औरतें अपने को परिवार की खुशी के लिये मिटा देती हैं...पर उनका महत्व भविष्य में कुछ भी नहीं होता. लेकिन ये बात अगर पहले से ही पता हो तो हर सीधी-साधी औरत शादी के बाद स्मार्ट बन जाये और अपने को मजबूत बनाकर आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर ना रहे. बाद में तो वही बात कि ''अब पछताये होत का जब चिड़ियाँ चुग गयीं खेत''.

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  7. Agree with you, said film has shown beautifully issues of housewife of today....
    Well said...

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  8. Aap ki post ek first pera ko padh main bhi yahi soch rahaa tha ki ye film bhasha ke baare main kahaan.....

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  9. Awesum thought... di aapke kya kahne, esi inspirational thot ke chalte aap kaiyo ki prerna shrot bani hai. sabka to pata kam hai bt meri 99.99% to aap hi hai.

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  10. kavita ji maine film to nahi dekhi hai lekin aap ki satik samiksha se film ka sar samajh aa gaya aur dekhne ki ichchha bhee jagi hai

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  11. Maine bhi yeh film dekhi, aur jin chhote chhote palon ke baare mein aapne likha hai, wo dil ko chhu gaye they... kyuki ek stree hi samajh sakti hai is marm ko. Lekin Bhasha ke baare mein main yeh kehna chahungi, ke film mein jo baki patra hai, angrezi ki class lete huye... unke ghar ya parivaar mein angrezi bhasha ke hisaab se samman tay nahi hote, yeh baat BHarat ke sandarbh mein ek seekh hai jaha angrezi ko status ke saath joda jata hai.... aur Sridevi ke charitra ki ek aur baat jo bhasha ke sandarbh mein dil ko chhu jaati hai, wo yeh ke jab wo thaan leti hai ke use sirf angrezi ki vajeh se nakara ja raha hai, to jis dhridta aur vishwaas ke saath wo use chunauti ke rup mein sweekarte huye, aasaani se seekh leti hai. To mera maanana hai ke is had tak yeh ek sandesh dene mein kaamyaab hui hai.

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  12. Ek stri ki asmita ke sath.... usme atmviswas kisi tarah se aana chahiye jo pariwar ki berukhi ki wajah se usne kho diya tha,wo atmvisvas chahe jase aye agar bhasha me wo khud ko kam mahsus karti ho ya apne getup me ya apne attitude me .asi sthi me badlaw jaruri hai

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  13. कोशिश अच्छी हैं, लेकिन किसके लिए , कितनी औरते इस मूवी को देखने गयी?

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  14. आपने बहुत पारदर्शी समीक्षा की है फिल्म 'इंगलिश विंगलिश' की । यह फिल्म मैंने भी देखी है । वास्तव में जब श्रीदेवी आँखों की मौन भाषा बोलतीं हैं तो बहुत कुछ स्त्री का अनकहा समझ में आता है । यह इस फिल्म और उनके प्रौढ़ अभिनय की एक खूबी और इस फिल्म की खूबसूरती है । ... उस गृहणी का आज के इस विषम युग में चोरी-चोरी अंग्रेज़ी सीखना आज की स्त्री के संघर्ष का एक और आयाम है । यह जताता है कि स्त्री को अपने सम्मान को कठिनाई से घर और बाहर अर्जित करने के लिए कितने स्तरों पर जद्दोजहद करनी पड़ती है । यह एक अत्यंत भावपूर्ण फिल्म है और हमारे तथाकथित पुरुष प्रधान संसार के लिए एक आईना भी । नव वर्ष की शुभकामना DrKavita Vachaknavee ji .

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  15. Atyant hi prernadayi.movie hai mujhe atyadhik pasand aayi...agar AAP Hindi bhashi hai..Aur Hindi bhasha jaanne wale le samksh..english me baat karte hai..to nischit roop..se gulam Ho Chuke hai..English k.....

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