बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

विश्व हिंदी सम्मेलन : सार्थकता, औचित्य व दायित्व


विश्व हिंदी सम्मेलन : सार्थकता, औचित्य व दायित्व  :  (डॉ.) कविता वाचक्नवी



गत दिनों दक्षिण अफ्रीका में सम्पन्न हुए 9वें विश्व हिन्दी सम्मेलन के संदर्भ में हिन्दी से जुड़े लेखकों, कलमकारों, तकनीक विशेषज्ञों, पाठकों व प्रेमियों के मध्य सम्मेलन को लेकर भिन्न भिन्न  प्रकार के संवाद, सम्मतियाँ, आपत्तियाँ, आरोप प्रत्यारोप, प्रश्नाकुलताएँ व विरोध, समर्थन इत्यादि का दौर चलता रहा है। इसी बीच हिन्दी के तकनीकी पक्ष से जुड़े हरिराम जी ने हिन्दी-भारत (याहूसमूह) पर एक लंबी टिप्पणी लिखी जिसमें सम्मेलन में भाग लेने वालों से कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे गए थे। उन प्रश्नों वाले संदेश को पढ़कर जो प्रतिक्रिया मैंने लिखी  उसे अगले दिन 'प्रवासी दुनिया' ने स्वतंत्र आलेख के रूप में प्रकाशित भी कर दिया    

 निम्नलिखित बॉक्स में हरिराम जी द्वारा उठाए गए वे महत्वपूर्ण प्रश्न ज्यों के त्यों पढे जा सकते हैं और
उत्तर में लिखी मेरी टिप्पणी को भी आलेख  (विश्व हिंदी सम्मेलन : सार्थकता, औचित्य व दायित्व ) के रूप में पढ़ा जा सकता है।  




*निम्न कुछ तथ्यपरक व चुनौतीपूर्ण प्रश्न 9वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में पधारे विद्वानों से करते हुए इनका उत्तर एवं समाधान मांगा जाना चाहिए..

 (1)---- हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने के लिए कई वर्षों से आवाज उठती आ रही है, कहा जाता है कि इसमें कई सौ करोड़ का खर्चा आएगा... बिजली व पानी की तरह भाषा/राष्ट्रभाषा/राजभाषा भी एक इन्फ्रास्ट्रक्चर (आनुषंगिक सुविधा) होती है.... अतः चाहे कितना भी खर्च हो, भारत सरकार को इसकी व्यवस्था के लिए प्राथमिकता देनी चाहिए।

 (2) ---- हिन्दी की तकनीकी रूप से जटिल (Complex) मानी गई है, इसे सरल बनाने के लिए क्या उपाय किए जा रहे हैं? 
 -- कम्प्यूटरीकरण के बाद से हिन्दी का आम प्रयोग काफी कम होता जा रहा है...
 -- -- हिन्दी का सर्वाधिक प्रयोग डाकघरों (post offices) में होता था, विशेषकर हिन्दी में पते लिखे पत्र की रजिस्ट्री एवं स्पीड पोस्ट की रसीद अधिकांश डाकघरों में हिन्दी में ही दी जाती थी तथा वितरण हेतु सूची आदि हिन्दी में ही बनाई जाती थी, लेकिन जबसे रजिस्ट्री और स्पीड पोस्ट कम्प्यूटरीकृत हो गए, रसीद कम्प्यूटर से दी जाने लगी, तब से लिफाफों पर भले ही पता हिन्दी (या अन्य भाषा) में लिखा हो, अधिकांश डाकघरों में बुकिंग क्लर्क डैटाबेस में अंग्रेजी में लिप्यन्तरण करके ही कम्प्यूटर में एण्ट्री कर पाता है, रसीद अंग्रेजी में ही दी जाने लगी है, डेलिवरी हेतु सूची अंग्रेजी में प्रिंट होती है। -- -- 
अंग्रेजी लिप्यन्तरण के दौरान पता गलत भी हो जाता है और रजिस्टर्ड पत्र या स्पीड पोस्ट के पत्र गंतव्य स्थान तक कभी नहीं पहुँच पाते या काफी विलम्ब से पहुँचते हैं। अतः मजबूर होकर लोग लिफाफों पर पता अंग्रेजी में ही लिखने लगे है।
 *डाकघरों में मूलतः हिन्दी में कम्प्यूटर में डैटा प्रविष्टि के लिए क्या उपाय किए जा रहे हैं?* 

 (3)-- -- रेलवे रिजर्वेशन की पर्चियाँ त्रिभाषी रूप में छपी होती हैं, कोई व्यक्ति यदि पर्ची हिन्दी (या अन्य भारतीय भाषा) में भरके देता है, तो भी बुकिंग क्लर्क कम्प्यूटर डैटाबेस में अंग्रेजी में ही एण्ट्री कर पाता है। टिकट भले ही द्विभाषी रूप में मुद्रित मिल जाती है, लेकिन उसमें गाड़ी व स्टेशन आदि का नाम ही हिन्दी में मुद्रित मिलते हैं, जो कि पहले से कम्प्यूटर के डैटा में स्टोर होते हैं, रिजर्वेशन चार्ट में नाम भले ही द्विभाषी मुद्रित मिलता है, लेकिन "नेमट्रांस" नामक सॉफ्टवेयर के माध्यम से लिप्यन्तरित होने के कारण हिन्दी में नाम गलत-सलत छपे होते हैं। मूलतः हिन्दी में भी डैटा एण्ट्री हो, डैटाबेस प्रोग्राम हो, इसके लिए व्यवस्थाएँ क्या की जा रही है? 

 (4)-- -- मोबाईल फोन आज लगभग सभी के पास है, सस्ते स्मार्टफोन में भी हिन्दी में एसएमएस/इंटरनेट/ईमेल की सुविधा होती है, लेकिन अधिकांश लोग हिन्दी भाषा के सन्देश भी लेटिन/रोमन लिपि में लिखकर एसएमएस आदि करते हैं। क्योंकि हिन्दी में एण्ट्री कठिन होती है... और फिर हिन्दी में एक वर्ण/स्ट्रोक तीन बाईट का स्थान घेरता है। यदि किसी एक प्लान में अंग्रेजी में 150 अक्षरों के एक सन्देश के 50 पैसे लगते हैं, तो हिन्दी में 150 अक्षरों का एक सन्देश भेजने पर वह 450 बाईट्स का स्थान घेरने के कारण तीन सन्देशों में बँटकर पहुँचता है और तीन गुने पैसे लगते हैं... क्योंकि हिन्दी (अन्य भारतीय भाषा) के सन्देश UTF8 encoding में ही वेब में भण्डारित/प्रसारित होते हैं। *हिन्दी सन्देशों को सस्ता बनाने के लिए क्या उपाय किए जा रहे हैं?*

 (5)-- -- अंग्रेजी शब्दकोश में अकारादि क्रम में शब्द ढूँढना आम जनता के लिेए सरल है, हम सभी भी अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश में जल्दी से इच्छित शब्द खोज लेते हैं, -- -- लेकिन हमें यदि हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश में कोई शब्द खोजना हो तो दिमाग को काफी परिश्रम करना पड़ता है और समय ज्यादा लगता है, आम जनता/हिन्दीतर भाषी लोगों को तो काफी तकलीफ होती है। हिन्दी संयुक्ताक्षर/पूर्णाक्षर को पहले मन ही मन वर्णों में विभाजित करना पड़ता है, फिर अकारादि क्रम में सजाकर तलाशना पड़ता है... विभिन्न डैटाबेस देवनागरी के विभिन्न sorting order का उपयोग करते हैं। *हिन्दी (देवनागरी) को अकारादि क्रम युनिकोड में मानकीकृत करने तथा सभी के उपयोग के लिए उपलब्ध कराने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं?*

 (6) -- -- चाहे ऑन लाइन आयकर रिटर्न फार्म भरना हो, चाहे किसी भी वेबसाइट में कोई फार्म ऑनलाइन भरना हो, अधिकांशतः अंग्रेजी में ही भरना पड़ता है... -- -- Sybase, powerbuilder आदि डैटाबेस अभी तक हिन्दी युनिकोड का समर्थन नहीं दे पाते। MS SQL Server में भी हिन्दी में ऑनलाइन डैटाबेस में काफी समस्याएँ आती हैं... अतः मजबूरन् सभी बड़े संस्थान अपने वित्तीय संसाधन, Accounting, production, marketing, tendering, purchasing आदि के सारे डैटाबेस अंग्रेजी में ही कम्प्यूटरीकृत कर पाते हैं। जो संस्थान पहले हाथ से लिखे हुए हिसाब के खातों में हिन्दी में लिखते थे। किन्तु कम्प्यूटरीकरण होने के बाद से वे अंग्रेजी में ही करने लगे हैं। *हिन्दी (देवनागरी) में भी ऑनलाइन फार्म आदि पेश करने के लिए उपयुक्त डैटाबेस उपलब्ध कराने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं?*

 (7) ---सन् 2000 से कम्प्यूटर आपरेटिंग सीस्टम्स स्तर पर हिन्दी का समर्थन इन-बिल्ट उपलब्ध हो जाने के बाद आज 12 वर्ष बीत जाने के बाद भी अभी तक अधिकांश जनता/उपयोक्ता इससे अनभिज्ञ है। आम जनता को जानकारी देने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं? 

 (8)--- भारत IT से लगभग 20% आय करता है, देश में हजारों/लाखों IITs या प्राईवेट तकनीकी संस्थान हैं, अनेक कम्प्यूटर शिक्षण संस्थान हैं, अनेक कम्प्टूर संबंधित पाठ्यक्रम प्रचलित हैं, लेकिन किसी भी पाठ्यक्रम में हिन्दी (या अन्य भारतीय भाषा) में कैसे पाठ/डैटा संसाधित किया जाए? ISCII codes, Unicode Indic क्या हैं? हिन्दी का रेण्डरिंग इंजन कैसे कार्य करता है? 16 bit Open Type font और 8 bit TTF font क्या हैं, इनमें हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाएँ कैसे संसाधित होती हैं? ऐसी जानकारी देनेवाला कोई एक भी पाठ किसी भी कम्प्यूटर पाठ्यक्रम के विषय में शामिल नहीं है। ऐसे पाठ्यक्रम के विषय अनिवार्य रूप से हरेक computer courses में शामिल किए जाने चाहिए। हालांकि केन्द्रीय विद्यालयों के लिए CBSE के पाठ्यक्रम में हिन्दी कम्प्यूटर के कुछ पाठ बनाए गए हैं, पर यह सभी स्कूलों/कालेजों/शिक्षण संस्थानों अनिवार्य रूप से लागू होना चाहिए। *इस्की और युनिकोड(इण्डिक) पाठ्यक्रम अनिवार्य करने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं?* 


 (9)---हिन्दी की परिशोधित मानक वर्तनी के आधार पर समग्र भारतवर्ष में पहली कक्षा की हिन्दी "वर्णमाला" की पुस्तक का संशोधन होना चाहिए। कम्प्यूटरीकरण व डैटाबेस की "वर्णात्मक" अकारादि क्रम विन्यास की जरूरत के अनुसार पहली कक्षा की "वर्णमाला" पुस्तिका में संशोधन किया जाना चाहिए। सभी हिन्दी शिक्षकों के लिए अनिवार्य रूप से तत्संबंधी प्रशिक्षण प्रदान किए जाने चाहिए। *इसके लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं? 

 (10)--- अभी तक हिन्दी की मानक वर्तनी के अनुसार युनिकोड आधारित कोई भी वर्तनी संशोधक प्रोग्राम/सुविधा वाला साफ्टवेयर आम जनता के उपयोग के लिए निःशुल्क डाउनलोड व उपयोग हेतु उपलब्ध नहीं कराया जा सका है। जिसके कारण हिन्दी में अनेक अशुद्धियाँ के प्रयोग पाए जाते हैं। इसके लिए क्या व्यवस्थाएँ की जा रही हैं? 
 -- हरिराम



विश्व हिंदी सम्मेलन : सार्थकता, औचित्य व दायित्व   
 (डॉ.) कविता वाचक्नवी


“विश्व हिन्दी सम्मेलन” एक बहुत अच्छे उद्देश्य व मंतव्य से प्रारम्भ हुआ था। सरकार इसका खर्च वहन करती है, यह भी प्रशंसनीय है । किन्तु जैसा कि एकदम निर्धारित व स्थापित तथ्य बन चुका है कि बंदरबाँट के कारण बरती जाने वाली अदूरदर्शिता के चलते दुर्भाग्य से यह मात्र कुछ सांसदों, अधिकारियों व सम्बन्धों का आयोजन बन चुका है।


इसके लिए दोष किन्हीं अँग्रेजी वालों या अँग्रेजी को देना बहुत सीमा तक अनुचित है।....  क्योंकि मैं इसके लिए स्वयं हिन्दी वालों को उत्तरदायी समझती हूँ… वे किसी भी चीज का विरोध या समर्थन विवेक व सही गलत के आधार पर नहीं अपितु अपना लाभ-हानि देख कर करते हैं। इसीलिए जिन्हें जब तक इस सम्मेलन में सरकारी खर्च पर नहीं बुलाया जाता और जब तक इनके वांछितों के नियंत्रण में इसे नहीं सौंप दिया जाता, तब तक वे (हिन्दी से संबन्धित प्रत्येक संस्था, आयोजन, प्रकाशन आदि की तर्ज पर) इसका भी विरोध और मखौल उड़ाते रहेंगे/ रहते हैं और इस सम्मेलन के औचित्य पर प्रश्नचिह्न लगा कर इसे बंद कर देने के पक्ष में हल्ला मचाए रहेंगे/ रहते हैं। किन्तु हिन्दी से संबन्धित प्रत्येक संस्था, आयोजन, प्रकाशन आदि की तर्ज पर जैसे ही चीज उनके हाथ में आए या उन्हें सम्मिलित कर लिया जाए, उनका सारा विरोध और बहिष्कार टाँय टाँय फिस्स हो जाता है। मूलतः हम अधिकांश हिन्दी वालों की सारी लड़ाई अपने कारणों से शुरू होती है और अपने स्वार्थ की पूर्ति हो जाने पर समाप्त हो जाती है। हिन्दी वालों की पक्षधरताएँ स्वार्थ के बूते तय होती हैं। वे इस व्यापार को बखूबी जानते हैं कि कब किस के पक्ष में बोलना है, कब किसका विरोध करना है। मूलतः हिन्दी उनके व्यावसायिक हितों (?) को साधने का माध्यम- भर रह गई है।


ऐसे काल व वातावरण में व ऐसे ही लोगों के वर्चस्व के चलते कुछ बचे खुचे वास्तविक भाषाप्रेमियों की जगह-जगह व बार बार ऐसी-तैसी होती रहती है और उनके विचारों, सुझावों एवं मान्यताओं सहित उन्हें भी झटक कर दूर कर देने का कुचक्र जोर-शोर व सर्वमान्य ढंग से नियमित तथा प्रत्येक प्रकरण में जारी है।


इसी प्रवृत्ति का शिकार यह सम्मेलन भी गत कई वर्षों से होता आया है व हो रहा है। अधिकांश स्थापित लोग भी इसकी निंदा इसलिए करते हैं क्योंकि वे स्वयं इसका हिस्सा नहीं हैं। वे इसका बहिष्कार यहाँ तक करना चाहते हैं कि इस सम्मेलन को पूर्णतया समाप्त कर देने व सरकार द्वारा इसका खर्च न दिए जाने की वकालत करते हैं। जबकि सम्मेलन न होने देना समस्या का समाधान नहीं और न ही सम्मेलन का औपचारिकता-भर बन जाना केवल सरकार का दोष है। मेरे विचार में तो हिन्दी और भारतीय भाषाओं के पतन के लिए मूलतः इन भाषाओं के प्रयोक्ताओं  ही अधिक जिम्मेदार हैं, जो अपनी मानसिकता के कारण एक अच्छी चीज को भी अपने स्वार्थ/स्वार्थों के चलते नष्ट कर देने में सदा निमग्न रहते हैं।


वर्तमान संदर्भों में हिन्दी को जोड़ कर देखने वाले व उसका उत्थान चाहने वाले कुछ वरिष्ठ हिन्दी सेवियों ने इस सम्मेलन की `थीम’ सुझाने के लिए आयोजित हुई बैठक में `तकनीक और हिन्दी’ को `थीम’ के रूप में रखना प्रस्तावित किया था। किन्तु प्रस्ताव के चरण में ही उसे उस रूप में स्वीकार नहीं किया गया। इसका कारण क्या हो सकता है, यह अनुमान आप ऊपर लिखे गए वाक्यों के साथ जोड़ कर लगा सकते हैं। `तकनीक और हिन्दी’ एक ऐसा विषय है, जिस पर वही साधिकार बोल लिख सकता है, जो इस क्षेत्र से जुड़ा है। यह क्षेत्र नया होने के कारण इस पर सालों से तैयार पड़ी सामग्री का ढेर भी नहीं है कि कोई भी, कहीं से भी शुरू करे और कुछ भी बोल दे… जो कि सम्मेलनों में बरसों से बोलते चले आने का अभ्यास रखने वालों के लिए कठिन हो जाता । ऐसे में इस विषय का इस रूप में धराशायी हो जाना स्वाभाविक ही था।


अब इसी का दूसरा पक्ष एक और भी है। वह यह कि हिन्दी में तकनीक से जुड़े लोगों का 2-3 प्रतिशत भी ऐसा नहीं है जो भाषा संरचना, भाषा की सैद्धांतिकी आदि से परिचित हो। भारतीय भाषाओं और मुख्यतः हिन्दी में तकनीक के प्रयोक्ताओं में बहुत विरले लोग हैं जो भाषा का शास्त्र और भाषा का विज्ञान व सैद्धांतिकी जानते हैं व जिनकी एकेडमिक समझ प्रशंसनीय व तलस्पर्शी हो। इन 2-3 प्रतिशत को यदि हमारा भाषासमाज, आयोजक, संस्थाएँ और संगठन आदि सही व समुचित आदर, स्थान व महत्व नहीं देते हैं तो यह दोष उन लोगों का है, उस समाज का है और उसे हानि उठानी ही पड़ेगी। हर क्षेत्र की तरह यहाँ भी नकली लोग अपनी चाँदी काटने में व्यस्त हो ही जाएँगे… यथापूर्वम्… ! तकनीक व भाषिक उर्वरता के मध्य की इस खाई का लाभ स्वार्थसिद्धि में रत मानसिकता को मिलता ही है। इसका कुछ दोष उन अकादमिक लोगों पर भी है जो तकनीक से बिदकते हैं और उसे भाषा व साहित्य के लिए त्याज्य व निकृष्ट समझते हैं।


इन तथ्यों और वस्तुस्थिति के आलोक में देखने पर आपके ये प्रश्न जिनसे समाधान की आशा करते हैं …. उनके पास उत्तर नहीं होने से पहले, उत्तर देने वालों का ही न होना एक बड़ी त्रासदी है। किन्तु इस त्रासदी के लिए हम सभी स्वयं उत्तरदायी हैं, हमारे भाषा-समाज की मानसिकता उत्तरदायी है। … क्योंकि वस्तुत: सरकार पैसा लगा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है और कुम्भ की तरह सांसद, अधिकारी व उनके परिचित भी कृतकृत्य हो जाते हैं। आयोजन को सार्थक व ठोस बनाने रखने का दायित्व तो स्वयं हिन्दी वालों का है, अतः उसके सार्थक व ठोस न होने का दायित्व भी हमारा ही हुआ। सम्मेलन के आयोजन पर ही प्रश्नचिह्न लगाना मुझे इसीलिए उपयुक्त नहीं लगता।


जब तक हिन्दी भाषासमाज की मानसिकता कई ढेरों-ढेर इच्छाओं (?) से उबरती नहीं है, तब तक आपको व हमें यक्ष की तरह युधिष्ठिर के आने की प्रतीक्षा में अपने प्रश्नों के साथ जलाशय की रखवाली जिस किसी तरह करते रहने को शापित रहना होगा और युधिष्ठिरों का पथ प्रशस्त करने के लिए स्वयं बुरे बन कर अन्य `प्यासों’ को मूर्छना की कसैली औषध पिलाते रहना होगा।

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इस लेख को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है 




5 टिप्‍पणियां:

  1. Bahut sargarbhit aalekh ,kit I satin bat hai ki tak ki kamyab aur Bhasha saiddhantiki donon par sadhikar Boone wale durlabha hain ,shayad isliye Hindi vishwabhasha nahin ban paa rahi .aapne Bahut hi sahi mudda uthaya hai .wah Wah ......

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  2. बेइंतहा शिद्दत के साथ हिंदी की सेवा के लिए सलाम

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  3. मेरे मित्रों, भाइयों- बहनों तथा देश के नौनिहालों क्या आप ये पसंद करेंगे कि आपके शिक्षक/शिक्षिका को गला दबाकर गालियाँ देते हुए कोई निकालकर बाहर करे ? क्या आप ये पसंद करेंगे कि आपकी राष्ट्रभाषा का अपमान कोई हिंदी दिवस के दिन माइक पर बच्चों के सामने करे ? क्या आप ये पसंद करेंगे कि आपके बच्चों को भारतीय संस्कृति-सभ्यता के खिलाफ कोई सिखाए ? यदि नहीं तो रिलायंस कम्पनी का पूरी तरह बायकाट कीजिए जहाँ भी हैं यथासंभव उनका विरोध अपनी-अपनी तरह से कीजिए क्योंकि रिलायंस जामनगर ( गुजरात ) में ये सब हो रहा है ....! देखिए :-

    बच्चों के मन में राष्ट्रभाषा - हिंदी के खिलाफ जहर भरने वाले मिस्टर एस. सुन्दरम जैसे लोगों को प्रिंसिपल जैसी जिम्मेदारी के पद पर रखने वाली कंपनी का हमें हर तरह से बहिष्कार करना है , आज गुरुपूर्णिमा के दिन आओ मिलकर हम सब दृढ.प्रतिज्ञा करें कि राष्ट्र और राष्ट्रभाषा के खिलाफ बोलने वालों से किसी तरह का कोई वास्ता नहीं रखेंगे , उनका पूरी तरह से बायकाट करेंगे ……! .

    प्रिंसिपल मिस्टर एस. सुन्दरम विना बी.एड.या शिक्षक - योग्यता के रिलायंस टाउनशिप जामनगर ( गुजरात ) में स्थित के.डी.अम्बानी विद्या मंदिर में प्राचार्य पद पर सुशोभित हैं और बच्चों को सिखाते हैं - "बड़ों के पांव छूना गुलामी की निशानी है, आपके पीछे खड़े शिक्षक -शिक्षिकाएं अपनी बड़ी-बड़ी डिग्रियां खरीद कर लाए हैं ये आपके रोल मोडल बनने के लायक नहीं हैं , गांधीजी पुराने हो गए उनको छोडो - फेसबुक को अपनाओ ......" केवल यही नहीं १४-९-२०१० ( हिंदी दिवस ) के दिन प्रातः कालीन सभा में प्रिंसिपल सुन्दरम साहब को जब आशीर्वाद के शब्द कहने को बुलाया गया तो इन्होंने माइक पर सभी बच्चों तथा स्टाफ के सामने कहा - " कौन बोलता है हिंदी राष्ट्र भाषा है, हिंदी टीचर आपको मूर्ख बनाते हैं.गलत पढ़ाते हैं "

    केवल इन्होंने हिंदी सी०डी० और डी० वी० डी० का ओर्डर ही कैंसिल नहीं किया, कक्षा ११ - १२ से हिंदी विषय ही नहीं हटाया बल्कि सबसे पुराने व आकाशवाणी राजकोट के हिंदी वार्ताकार को एच० ओ० डी० के पद से गलत तरह से हटाकर अति जूनियर को वहां बैठाकर राष्ट्रभाषा - हिन्दी को कमजोर कर दिया है.

    छात्र -छात्राओं के प्रति भी इनका व्यवहार निर्दयतापूर्ण रहा है यही कारण है कि १० वीं कक्षा के बाद अच्छे बच्चे विद्यालय छोड़कर चले जाते हैं, जिस समय मेरे पुत्र की प्री बोर्ड परीक्षा थी - मुझे सस्पेंड किया गया, फिर महीनों रुके रहे जैसे ही बोर्ड परीक्षा 2011 शुरू हुई मेरी इन्क्वायरी भी शुरू करवा दिए, उसके पेपर के पहले इन्क्वायरी तिथि रख करके उसे डिस्टर्ब करने का प्रयास किये, इन्टरनेट कनेक्सन भी कटवा दिया जिससे वो अच्छी तैयारी नहीं कर सका और परीक्षा ख़त्म होते ही रोते हुए अहमदाबाद आ गया. मैं १०-अ का अध्यापक था उन बच्चों का भी नुक्सान हुआ है जिनको मैं पढाता था . मेरी पत्नी तथा बच्ची को जेंट्स सेक्युरिटी भेजकर - भेजकर प्रताड़ित करवाते रहे और नौकरी छोड़ने पर मजबूर कर दिए .

    अभी तक इन्होंने उस विद्यालय के पुराने व अनुभवी लगभग ४० शिक्षक-शिक्षिकाओं को प्रताड़ित करके जाने पर मजबूर कर दिया है या इनकी गलत शिकायतों पर कंपनी ने उन्हें निकाल दिया है . पाकिस्तान से सटे इस इलाके में इस तरह बच्चों को पाठ पढ़ाना कितना उचित है, देश व समाज के लिए कितना नुकसानदायक है ये आप पर छोड़ता हूँ ...............!!!

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  4. कविता जी ,

    हिंदी विश्व सम्मेलन पर इतने आरोपों और आलोचनाओं का सकारात्मक समाधान और सूचना आपके अलावा कौन दे सकता है । बेशक़ बुरा सिर्फ़ बुरा कह देने से अच्छा नहीं बन जाता उसके लिए तरीक़े निकालने पड़ते हैं।
    हमें आपकी इसी काबिलियत पर नाज़ है। इस आग को बुझने न दीजिए।

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